दोष नहीं गुण ग्रहण कीजिए।
ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।🌹
आत्मीय परिजन, आप सभी को सादर प्रणाम 🙏!
आज का शीर्षक - दोष नहीं गुण ग्रहण कीजिए।
प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि जगत् उसका आदर करे, उसके गुणों का लोग बखान करें, सर्वत्र उसका नाम हो, पर यह आशा तभी सफल हो सकती है कि जब वह उसके लिये योग्यता प्राप्त करले। मनुष्य यह भी जानता है कि आदर गुणों का होता है, व्यक्ति का नहीं। एक ही व्यक्ति जब उसमें गुणों का आधिक्य होता है, विश्व द्वारा आदरणीय और यशोभाजन हो जाता है। उसी व्यक्ति में जब दुर्गुण पनप कर गुणों के ऊपर छा जाते हैं, तो उसकी चिर संचित कीर्ति क्षण भर में ही विलीन हो जाती है। हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति जाति और कुल से हीन हो कुरूप हो, आयु में छोटा हो, साधन और संपत्ति से वंचित हो, फिर भी यदि कोई एक गुण भी उल्लेखनीय रूप में उसमें पाया जाता हो तो बहुत सी कमियाँ गौण हो जाती हैं और गुण की मुख्यता से वह आदरणीय बन जाता है। इसके विपरीत उम्र में बड़ा जाति और कुल सम्पन्न, साधन, संपत्ति व बुद्धि इन सब बातों में बढ़ा चढ़ा हो फिर भी उसमें दुर्गुणों की अधिकता होती है तो वह निन्दा का पात्र हुए बिना नहीं रहता। इसीलिये महात्मा भर्तृहरि जी ने कहा है “गुण पूजा स्थान गुणिषु न च लिंगं न च वयः।”
अनेक सद्गुणों का निवास हो उसका तो आदर होना स्वाभाविक ही है, पर उत्कृष्ट मात्रा में यदि एक भी गुण किसी में विकसित हो जाय तो वह व्यक्ति सबकी नजरों में चमक उठता है। बस उस एक ही विशेष गुण से लोग उसके प्रति आकृष्ट होते हैं और छोटे मोटे अन्य दोष दब से जाते हैं। इसी तरह कोई दुर्गुण, मनुष्य में बढ़ जाता है तो उसके छोटे मोटे अनेक गुण दब से जाते हैं। अतः मानव को हर समय अपनी ओर देखते रहना चाहिये ताकि दोष बढ़ने न पाये और गुण अधिकाधिक पनपते रहें, इसका लक्ष्य रखना आवश्यक है।
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि गुणी बनना तो हम सभी चाहते हैं पर संस्कार और संपर्क दोष से हममें दुर्गुण घुस जाते हैं, उन्हें हम दूर नहीं कर पाते और अपनी योग्यता का विकास किये बिना उसके द्वारा होने वाले फल को प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः हमारे मनीषियों ने स्वानुभव से गुणी बनने के लिए एक बहुत सरल, सीधा और सच्चा रास्ता बतलाया है जिसके द्वारा प्रत्येक मानव सहज ही में गुणी बन सकता है और उसके दोष क्रमशः कम एवं दूर किये जा सकते हैं। वह उपाय है *मनुष्य गुणी के प्रति अनुराग रखें, गुणीजनों के प्रति आदर-सत्कार व भक्ति रखे। जैसे-जैसे मनुष्य का गुणानुराग बढ़ेगा वैसे-वैसे उसका खिंचाव गुणों के प्रति बढ़ कर वह गुणी बनता चला जायगा। यह क्रिया इतनी स्वाभाविक है कि इसमें विचार करने की और श्रम करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं होती। गुणी से प्रेम और गुणों के प्रति आकर्षण हो’ बस गुणी बनने का मार्ग प्रस्तुत होता चला जायगा। सत्संग का महात्म्य और महापुरुषों के नाम स्मरण व गुण कीर्तन का जो बड़ा भारी फल हमारे शास्त्रों में वर्णित है उसका एक मात्र कारण यही है कि जैसे व्यक्तियों के साथ हमारा संपर्क होता है, उसके गुण-दोष का प्रभाव हमारे पर भी पड़े बिना नहीं रहता। महापुरुषों में गुणों की प्रधानता होती है। अतः मनुष्य उनके गुणों को स्मरण करके यही चाहता है कि वह भी वैसा ही गुणी बन जाय। मनुष्य की जैसी इच्छा होती है, उसी के अनुरूप उसकी प्रवृत्ति होती है, और जिस चीज की इच्छा जितनी बलवती होगी, तो प्रयत्न उतने ही सबल होंगे और उसकी पूर्णता भी उतनी ही शीघ्रता से हो सकेगी।* इसीलिए कहा गया है, जैसा चाहो बन जाओ। शास्त्रीय दृष्टान्त प्रसिद्ध है कि *भृंगी कीट को पकड़ कर अपने बनाये हुए घर में रख छोड़ती है। उसका गुञ्जार सुन कर कीट की यह इच्छा होती है कि मैं भी ऐसा ही भृंगी बन जाऊं। इस इच्छा से ही वह कीट भृंगी बन जाता है।* श्रीमान् चिदानन्दजी ने आत्मा परमात्मा कैसे बनती है, इसका दृष्टान्त सहित उपाय बतलाते हुए कहा है—
आत्मा परमात्म पद पावे, जो परमात्मा सुलय लावे।
सुनके शब्द कीट भृंगी का, निज तन मन की शुधि विसरावे॥
देखहु प्रकट ध्यान की महिमा, सोई कीट भृंगी हो जावे।
वास्तव में देखा जाये तो *परमात्मा पुरुष सिद्ध व बुद्ध हो चुके हैं। वे किसी का भला-बुरा नहीं करते पर उनके निमित्त से मनुष्य में अच्छी भावनाओं का उदय होता है, गुणों के प्रति आकर्षण बढ़ता है। अपने दोषों, दुर्गुणों व कमियों का उसे ज्ञान होता है तथा दूर करने की भावना होती है। इसी से मनुष्य पतन से बचकर उत्थान की ओर अग्रसर होता है। गुणों का आकर्षण जितना बढ़ेगा, दोषों का संपर्क स्वयं उतना ही घट जायगा। गुणी व्यक्ति के स्मरण, भजन, कीर्तन, ध्यान से गुणों के प्रति आकर्षण बहुत सहज हो जाता है। एवं वही आकर्षण बढ़ते बढ़ते तद्नुरूप बना देता है।* एक जैन कवि ने कहा है—
“गुणी पुरुष ने ध्यावतां, गुण आवे निज अंग”।
प्राणि मात्र गुणों एवं दोषों के पुँज हैं। किसी में गुणों की अधिकता है तो किसी में दोषों की। दृष्टि भिन्नता से कभी-कभी किसी के गुण दूसरों को दोष रूप लगने लगते हैं और दोष-गुण। *जिसकी दोष-दर्शन की दृष्टि होती है, वह बड़े महापुरुषों में भी कोई न कोई दोष ढूंढ़ निकालता है, जबकि गुण दृष्टि व्यक्ति भयंकर पापी में से भी कोई न कोई गुण पा लेता है। थोड़े बहुत गुण और दोष सभी में भरे हैं। देखने वाला स्वयं जैसा होगा या जिस गुण या दोष को महत्व देगा, उसे दूसरे में वही दिखाई देगा। हमारे में दोष की इतनी प्रचुरता क्यों? एवं गुणों की इतनी कमी क्यों? इस पर जब गम्भीर विचार करते हैं तो विदित होता है कि दृष्टि दूसरों के अवगुण को देखने में लगी रहती है। दोषों की ओर बहुत बार विशेष रूप ध्यान जाने के कारण ही हम में दोषों की प्रबलता और अधिकता हो जाती है। यदि हम अपनी दृष्टि को गुण ग्रहण में लगा दें। जहाँ कहीं भी जिस किसी में छोटा मोटा जो भी गुण देखें, उसे ग्रहण करने का लक्ष्य रखें अर्थात् गुणग्राही बनें तो गुणवान बनने में देर नहीं लगेगी। केवल अपनी दृष्टि या वृत्ति में ही परिवर्तन करने भर की देरी है। दोष दृष्टि की जगह गुण दृष्टि को महत्व देना है, फिर हमारा काम सरल और शीघ्र हो जायगा। गुणग्राही व्यक्ति की दृष्टि बहुत उदार और विशाल हो जाती है। सामुदायिक अनुदार व संकुचित भावना नहीं होती। क्योंकि गुण प्रत्येक मनुष्य में पाये जाते हैं। यह किसी देश, जाति, सम्प्रदाय की ही बपौती नहीं। अतः गुणग्राही व्यक्ति को जहाँ भी थोड़ा बहुत गुण दिखाई देगा, उसके प्रति आकृष्ट हुए बिना नहीं रह सकता। संकुचित दृष्टि वाला अपने देश, जाति, सम्प्रदाय वालों के तो गुणों का बखान करेगा, पर उस सीमा के बाहर के व्यक्तियों के गुणों की ओर उसका ध्यान नहीं जायेगा और लक्ष्य में आ जाने पर भी वह उनके गुणों की स्तुति करने में हिचकिचायेगा।* जैन परिभाषा में संकुचित वृत्ति को दृष्टि राग की संज्ञा दी गई है। यदि व्यक्ति संकुचितता का आश्रय लेता है तो उसका सम्प्रदाय या व्यक्ति विशेष के प्रति इतना अधिक मोह हो जाता है कि उसे उसके दोष भी गुण रूप दिखाई देने लगते हैं और दूसरों के गुण भी दोष रूप। अतएव हमें सावधानी रखनी आवश्यक है कि *हमारी गुण-दृष्टि संकुचित व अनुदार न हो। जहाँ कहीं किसी में भी गुण दिखाई दे, बिना हिचकिचाहट के स्तवना करें व गुणों को अपनाने का प्रयत्न करें। गुणी के बिना गुण रहेगा कहाँ? गुण-गुणी का अविच्छेद्द सम्बन्ध है। अतः गुणी बनना है स्व आत्मगुण जो तिरोभूत हैं, उन्हें प्रकट करना है तो गुणनुरागी व गुण-ग्राही बनो। यही गुण बनने का सबसे सीधा सरल व सच्चा उपाय है।*
✍️ वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ, युगऋषि, परमपूज्य गुरुदेव, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 पृष्ठ संख्या १२-१४, अखण्ड ज्योति, दिसंबर -१९५६
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